डेढ़ साल पहले जब मैं बीकानेर आने की तैयारी कर रहा था तो मुझे कुछ मित्रों ने यहां की खासियतों में पाटों के बारे में जमकर कसीदे पढ़े थे। तर्क दिया गया कि ये पाटे इस मरु नगरी की लोक संस्कृति, साहित्य सृजन और साम्प्रदायिक सौहार्द्र के वाहक हैं। ऐसे में इन्हें लेकर मन में जिज्ञासा स्वाभाविक थी। बीकानेर में आते ही इन पाटों से रूबरू हुआ। पाटा यानी लकड़ी का बड़ा तख्त। भीतरी शहर में हर चौक या मोहल्ले का अपना पाटा है। खास
तौर पर पुष्करणा और ओसवाल बिरादरी के लगभग सभी चौकों में ये पाटे हैं, जो देर
रात तक गुलजार रहते हैं। चर्चा के साथ ही कुछ लोग तो घर जाने के बजाय इन पर सो भी जाते हैं। इन पाटों पर हर उम्र का व्यक्ित बैठता है।
किसी जमाने में ये पाटे चौपाल की भूमिका निभाते थे। खुशी का मौका हो या गमी का माहौल, इन पाटों का इस्तेमाल होता था। जिस चौक का पाटा है, उसके आस-पास के लोगों के सभी विवाद वहां निपटाए जाते हैं। पाटों पर बैठे मोहल्ले के मुखियाओं का फरमान सभी को मानना पड़ता था। इनमें ना कोई जात-पात और ना ही कोई छुआ-छूत। सभी को समाजवादी नजर से देखा जाता था। समय बदला, पाटे जहां के तहां रहे, लोग भी आते-जाते रहे, लेकिन भूमिका बदलती गई। ये पाटे मोहल्ले के बुजुर्गों का आराम स्थली और कुछ ठाले लोगों का टाइम पास साधन बनकर रह गए हैं। कॅरियर की दौड़ में शामिल युवा एक तरह से इन पाटों से बहुत दूर चला गया है,क्योंकि उन्हें लगता है कि पाटेबाजी उनका भविष्य संवार नहीं सकती है।
बीकानेर में पाटा संस्कृति पनपने के पीछे यहां की बसावट भी प्रमुख वजह रही है। शहर में छोटी-छोटी गलियां, जीरो सेटबैक पर बनाए मकान और इनमें आंधियों से बचने के लिए छोटे-छोटे झरोखे। ऐसे में हर गली में लोहे या लकड़ी के तख्त बिछा दिए गए, जिन पर बैठ कर लोग खाली समय में सामूहिक चर्चा कर सकें। धीरे-धीरे समाज में इन पाटों की उपयोगिता बढ़ती गई और इन पर मोहल्ले के बारे में सकारात्मक फैसले लिए जाते थे। रातभर पाटे आबाद रहने के कारण मोहल्ले की चौकसी भी होती थी। लेकिन, बहुत मायने में अब ऐसी स्थिति नहीं रही है। कुछ महीने पहले डकैत रांगड़ी चौक में करोड़ों रुपए का डाका डालकर एक जौहरी की हत्या कर गए, लेकिन पाटों पर जमे लोगों को भनक तक नहीं लगी।
बीकानेर जैसी पाटा संस्कृति की झलक राजस्थान की सूर्यनगरी जोधपुर और मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी दिखाई दे सकती है, लेकिन वहां अब इस मरुनगरी जितनी चहल-पहल नजर नहीं आएगी। कारण यह भी सकता है कि राजस्थान का चौथा बड़ा शहर होने के बावजूद बीकानेर का व्यक्ित भाग-दौड़ की जिंदगी से बहुत दूर है। जोधपुर और भोपाल विकास की दौड़ में बीकानेर से काफी आगे निकल चुके हैं। लेकिन, बीकानेर अपनी जिंदगी को अपने अंदाज में जी रहा है।
चारदीवारी के भीतर के लोगों में अपने शहर के प्रति इतनी दीवानगी है कि वह बीकानेर में रहने के लिए नौकरी के बड़े से बड़े ऑफर छोड़ने को तैयार है। जितना मिला, उतने में ही संतुष्ट। टाइम पास के लिए पाटे से बढि़या कोई साधन नहीं। पाटे पर शहर की हर खबर मिलेगी। गर्मी में पाटे रात भर आबाद रहते हैं। जिसे घर नहीं जाना, वह बतियाते हुए पाटे पर ही सो जाता है। सर्दी में रात दो बजे तक अलाव जलाते हुए घाये-घूती यानी इधर-उधर की बातों में तल्लीन रहते हैं। भट्ठडों के चौक का पाटा तो बारहमास रातभर जागता रहता है।
स्वाभाविक है कि आप देर रात या रातभर जागेंगे तो दिन में देर तक सोएंगे। यदि किसी कारण से सो नहीं पाए तो आलस्य छाया रहेगा। यही आलस्य आज इस शहर के लिए नुकसानदायक बनकर उभर रहा है। सरकारी कर्मचारी समय पर ऑफिस नहीं पहुंचते। पहुंच भी गए तो ऑफिस में कुर्सी पर दिनभर उंघते रहेंगे। यहां के ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में ऐसे लोगों की भरमार है, जो पाटेबाजी में माहिर हैं। रात में मोहल्ले का पाटा तो दिन में ऑफिस की कुर्सी टाइम पास का माध्यम दिखती है। स्थिति यह है कि ऑफिस में काम का कोई माहौल ही नजर नहीं आता है। जो सरकारी नौकरी में नहीं है, उनमें भी काम को लेकर कोई जोश नहीं दिखाई देता है। कुछ लोग तो एक सप्ताह कमा कर महीने भर घर में बैठना पसंद करते हैं।
भले ही पाटा संस्कृति को लेकर बड़े-बड़े दावे किए जाते हो, लेकिन मुझे आज के समय में इनकी कोई सार्थकता नजर नहीं आती है। देर रात तक पाटों पर जहां भंगेडियों की फौज बैठी रहती है, वही इनके
आस-पास जुआ का खेल चलता रहा है। दोनों को एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं। एक तरफ पाटेबाजी तो दूसरी ओर जुआ का खेल। जुए के बढ़ते रूझान को देखकर लगता है कि यह शहर अब जुआ संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। सार्थक उपयोगिता नहीं होने के कारण कुछ पाटे तो चुनिन्दा लोगों की जागीर बनते जा रहे हैं, जिन पर उनकी मर्जी के बगैर कोई बैठ नहीं सकता है। इन पाटों की पुरानी स्थिति को बहाल करने के लिए इस शहर में कम लोग ही चिन्तित दिखते हैं।
किसी जमाने में ये पाटे चौपाल की भूमिका निभाते थे। खुशी का मौका हो या गमी का माहौल, इन पाटों का इस्तेमाल होता था। जिस चौक का पाटा है, उसके आस-पास के लोगों के सभी विवाद वहां निपटाए जाते हैं। पाटों पर बैठे मोहल्ले के मुखियाओं का फरमान सभी को मानना पड़ता था। इनमें ना कोई जात-पात और ना ही कोई छुआ-छूत। सभी को समाजवादी नजर से देखा जाता था। समय बदला, पाटे जहां के तहां रहे, लोग भी आते-जाते रहे, लेकिन भूमिका बदलती गई। ये पाटे मोहल्ले के बुजुर्गों का आराम स्थली और कुछ ठाले लोगों का टाइम पास साधन बनकर रह गए हैं। कॅरियर की दौड़ में शामिल युवा एक तरह से इन पाटों से बहुत दूर चला गया है,क्योंकि उन्हें लगता है कि पाटेबाजी उनका भविष्य संवार नहीं सकती है।
बीकानेर में पाटा संस्कृति पनपने के पीछे यहां की बसावट भी प्रमुख वजह रही है। शहर में छोटी-छोटी गलियां, जीरो सेटबैक पर बनाए मकान और इनमें आंधियों से बचने के लिए छोटे-छोटे झरोखे। ऐसे में हर गली में लोहे या लकड़ी के तख्त बिछा दिए गए, जिन पर बैठ कर लोग खाली समय में सामूहिक चर्चा कर सकें। धीरे-धीरे समाज में इन पाटों की उपयोगिता बढ़ती गई और इन पर मोहल्ले के बारे में सकारात्मक फैसले लिए जाते थे। रातभर पाटे आबाद रहने के कारण मोहल्ले की चौकसी भी होती थी। लेकिन, बहुत मायने में अब ऐसी स्थिति नहीं रही है। कुछ महीने पहले डकैत रांगड़ी चौक में करोड़ों रुपए का डाका डालकर एक जौहरी की हत्या कर गए, लेकिन पाटों पर जमे लोगों को भनक तक नहीं लगी।
बीकानेर जैसी पाटा संस्कृति की झलक राजस्थान की सूर्यनगरी जोधपुर और मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी दिखाई दे सकती है, लेकिन वहां अब इस मरुनगरी जितनी चहल-पहल नजर नहीं आएगी। कारण यह भी सकता है कि राजस्थान का चौथा बड़ा शहर होने के बावजूद बीकानेर का व्यक्ित भाग-दौड़ की जिंदगी से बहुत दूर है। जोधपुर और भोपाल विकास की दौड़ में बीकानेर से काफी आगे निकल चुके हैं। लेकिन, बीकानेर अपनी जिंदगी को अपने अंदाज में जी रहा है।
चारदीवारी के भीतर के लोगों में अपने शहर के प्रति इतनी दीवानगी है कि वह बीकानेर में रहने के लिए नौकरी के बड़े से बड़े ऑफर छोड़ने को तैयार है। जितना मिला, उतने में ही संतुष्ट। टाइम पास के लिए पाटे से बढि़या कोई साधन नहीं। पाटे पर शहर की हर खबर मिलेगी। गर्मी में पाटे रात भर आबाद रहते हैं। जिसे घर नहीं जाना, वह बतियाते हुए पाटे पर ही सो जाता है। सर्दी में रात दो बजे तक अलाव जलाते हुए घाये-घूती यानी इधर-उधर की बातों में तल्लीन रहते हैं। भट्ठडों के चौक का पाटा तो बारहमास रातभर जागता रहता है।
स्वाभाविक है कि आप देर रात या रातभर जागेंगे तो दिन में देर तक सोएंगे। यदि किसी कारण से सो नहीं पाए तो आलस्य छाया रहेगा। यही आलस्य आज इस शहर के लिए नुकसानदायक बनकर उभर रहा है। सरकारी कर्मचारी समय पर ऑफिस नहीं पहुंचते। पहुंच भी गए तो ऑफिस में कुर्सी पर दिनभर उंघते रहेंगे। यहां के ज्यादातर सरकारी कार्यालयों में ऐसे लोगों की भरमार है, जो पाटेबाजी में माहिर हैं। रात में मोहल्ले का पाटा तो दिन में ऑफिस की कुर्सी टाइम पास का माध्यम दिखती है। स्थिति यह है कि ऑफिस में काम का कोई माहौल ही नजर नहीं आता है। जो सरकारी नौकरी में नहीं है, उनमें भी काम को लेकर कोई जोश नहीं दिखाई देता है। कुछ लोग तो एक सप्ताह कमा कर महीने भर घर में बैठना पसंद करते हैं।
भले ही पाटा संस्कृति को लेकर बड़े-बड़े दावे किए जाते हो, लेकिन मुझे आज के समय में इनकी कोई सार्थकता नजर नहीं आती है। देर रात तक पाटों पर जहां भंगेडियों की फौज बैठी रहती है, वही इनके
आस-पास जुआ का खेल चलता रहा है। दोनों को एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं। एक तरफ पाटेबाजी तो दूसरी ओर जुआ का खेल। जुए के बढ़ते रूझान को देखकर लगता है कि यह शहर अब जुआ संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। सार्थक उपयोगिता नहीं होने के कारण कुछ पाटे तो चुनिन्दा लोगों की जागीर बनते जा रहे हैं, जिन पर उनकी मर्जी के बगैर कोई बैठ नहीं सकता है। इन पाटों की पुरानी स्थिति को बहाल करने के लिए इस शहर में कम लोग ही चिन्तित दिखते हैं।