बीकानेर में चटोरों की बड़ी जमात है। बाकायदा इनके लिए अलग से बाजार है। इसे चाय-पट्रटी का नाम दिया गया है। लक्ष्मीनाथ मंदिर से बड़ा बाजार होकर चाय पट्रटी तक पहुंचा जा सकता है, जहां सुबह साढ़े पांच बजे से रात आठ बजे तक यह गुलजार रहती है। यहां चाय की चुस्कियों और गर्म पकौडि़यों के साथ घर-आंगन से लेकर व्हाइट हाउस तक की चर्चा होती है। देश के मूधन्य साहित्यकार अज्ञेय भी इस गली की रौनक से रूबरू हो चुके हैं। कहते हैं कि कभी यहां घी और लौहे का व्यापार होता है, लेकिन जितनी इसे चटोरों के बाजार के रूप में पहचान मिली, उतनी घी और लौह के बिजनेस नहीं।
सुबह छह बजे कड़ाही में दाल सेंकने के लिए खुरपे की आवाज के साथ भीड़ जुटने लग जाती है। चाटने का मोह इतना कि सुबह नित्य कर्म से पहले ही लोग गरमा-गरम चाय, कचौरी-पकौडि़यां और परांठों का स्वाद चखने पहुंच जाते हैं। कईयों का प्रेशर तो पकौडि़यों के पेट में उतरने से ही बनता है। इन्हें पेस्ट की तो आदत ही नहीं है। साल में शीतलाष्टमी और निर्जला एकादशी को जरूर यहां स्टोव और खुरपे की आवाज शांत रहती है, क्योंकि परम्पराओं के इस शहर में शीतलाष्टमी पर गरम चीजें नहीं खाते और निर्जला एकादशी को चटोरों का भी व्रत रहता है।
बताते हैं कि कुछ साल पहले तक यहां बुद्विजीवियों का जमावड़ा रहता था। दिनभर चाय के प्याले के साथ साहित्य, राजनीति और समाज पर घण्टों गंभीर चर्चा होती है। इसमें शरीक होने के लिए शहरभर के लोग ध्यान से सुनते थे, क्योंकि इसी में उन्हें भविष्य की राह दिखाई देती थी। चुनाव के समय तो इस गली की रौनक परवान पर रहती थी, क्योंकि यहां की चर्चाओं से उम्मीदवारों की हवा बनती-बिगड़ती थी। अनेक लोग तो इस गली की छाया में पल कर कवि और साहित्यकार का लबादा ओढ़े आज भी घूम रहे हैं। ऐसों के बारे में टिप्पणी होती है कि ये चाय पट्रटी की उपज हैं।
समय के साथ बुद्विजीवियों ने तो इस गली से नाता तोड़ लिया, लेकिन अब उनकी जगह शहर के चटोरों ने ले ली। सात-आठ फीट चौड़ाई वाली इस गली में कचौरी, पकौड़ी, समोसे और दही-बड़े की महक दिनभर उठती रहती है।
आलू की झोलदार सब्जी के बगैर पकौड़ी का मजा और न ही कचौरी का। इधर कड़ाही से ये चीजें उतरी और उधर मिनटों में चटोरों के मुंह में चट हुई। दिनभर चटोरों की इतनी भीड़ है कि साईकिल भी गली से निकलना मुश्िकल हो जाता है।
इस गली में चटोरों को आकर्षित करने के लिए मेकडोनाल्ड या किसी अन्य फूड चैन जैसी शोशेबाजी नहीं है। यहां दुकानों के आगे बनी पट्रिटयां और लकड़ी से बनी बैंच ही पर्याप्त है। प्लेट के बजाय अखबार का कागज पर ही चाट दी जाती है। इतना ही नहीं, यह कागज भी वहीं फैंक दिया जाता है, जहां चटोरे कुत्ते पहले से ही चट करने के लिए चौकस रहते हैं। सवाल जहां तक दुकानों के सामने डस्टबिन का है, वह तो पूरी गली में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती।
बारिश के दौरान गली में कादा-कीचड़ और भिनभिनाती मक्खियां बाहर के लोगों को कुछ विचलित कर सकती है, लेकिन यहां के चटोरों को इससे कोई परेशानी नहीं। आम दिनों की तरह उनका चाटना जारी रहता है। माहौल देखकर ऐसा लगता है कि चाटने वालों को तो सिर्फ अपने स्वाद से ही मतलब हैं। न तो इनकी खुराक में कोई कमी और न ही इन्हें आस पास की गंदगी से कोई परहेज। मतलब है तो स्वाद के आनंद से, जिससे सभी चटोरे अभिभूत हैं। एक ही जुमला- 'भायला जूनसा, 50 ग्राम पकौड़ी झोल (सब्जी की तरी ) के साथ और दे'। यहां जूनसा की पकौडि़यां काफी प्रसिद्व हैं। आसपास की दुकानों पर खोमचा भरा रहे, लेकिन जूनसा का खोमचा मिनटों में खाली हो जाता है। इसकी पकौड़ी कुरकुरी और नरम होती है, जो हर उम्र के चटोरों को खूब भाती है।
डेढ़ साल के भीतर मुझे भी इस गली में दो-तीन बार ही जाने का अवसर मिला। चटोरे दोस्तों का आग्रह था और कुछ उस गली के किस्सों को सुनकर उत्सुकता भी। मैं दोस्तों की मनुहार को नहीं रोक पाया। आप भी बीकानेर आएं तो इस गली में पचास ग्राम पकौड़ी या कचौरी खाना न भूलें। बीकानेर का सफर चाय-पट्रटी के बगैर अधूरा है। गली का माहौल भले ही हाईजनिक न लगे, किन्तु स्वाद का आनंद अच्छी-अच्छी होटलों को भी मात देता है। यह बीकोनेरियों से ज्यादा कोई महसूस नहीं कर सकता है।
जय हो... एक चक्कर और हो जाए चटारों की गली चायपट्टी का :)
ReplyDeleteवाह ! घुमक्कड़ चटोरों के लिए बढ़िया जानकारी जब वे बीकानेर आयेंगे इस गली का लुफ्त उठाएंगे
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