बीकानेर में मुझे डेढ़ साल हो रहा है। श्राद्ध का यह पर्व दूसरा है। जैसे-जैसे मैं इस शहर के गली-मोहल्लों से से परिचित हो रहा हूं, वैसे ही मुझे यहां के तीज-त्योहार और रीति-रिवाज समझ में आने लगे हैं। मुझे इस श्राद्ध में जो सबसे अजीब लगा, वह यहां पितरों को तृप्त करने के लिए डिनर का आयोजन। देश के उत्तरी और मध्य इलाकों में श्राद्ध पर पितरों को तृप्त करने की परम्परा है। दिन में ब्राह्मण को भोज और कोओं को कोर खिलाने की रस्म निभाई जाती है। लेकिन, बीकानेर में खान-पान के शौकीनों ने इससे भी बढ़कर डिनर के आयोजन की परम्परा निकाल ली है।
मेरी नजर में यह परम्परा लोगों के लिए पितरों से ज्यादा खुद को तृप्त का माध्यम दिखाई देती है। बीकानेर के भीतरी शहर में श्राद्ध को किसी उत्सव की तरह लिया जाता है। इसमें परलोक सिधार गए चेहते परिजन कितने तृप्त होते हैं, यह तो वो ही जानें, लेकिन श्राद्ध पर खाने-पीने को जो दौर चलता है, वह आज के दौर के किसी जन्मदिन या शादी की सालगिरह के जश्न से कम नहीं होता है। कम से दो-तीन सौ रिश्तेदारों की फौज दिनभर के कामकाज को निपटा कर शाम को एकत्रित होती है और फिर स्वाद के बीच चलता है श्राद्ध का डिनर।
यह किसी एक घर की दास्तां नहीं है, बल्कि भीतरी शहर में हर घर में ऐसा नजारा सामान्य है। यहां इसे परम्परा को कोई बुरा नहीं मानता। सब अपने पितरों को तृप्त करने के नाम पर ज्यादा से ज्यादा अच्छा आयोजन करना चाहते हैं। श्राद्ध के दिन की शुरूआत ब्राह्मण और कोओं को उनके हिस्से का खाने के साथ होती है। इसके बाद शाम को घर के सभी परिजन श्राद्ध के डिनर में तल्लीनता से जुट जाते हैं। मेरे जैसे व्यक्ित को यहां हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है,क्योंकि मैं न तो श्राद्ध और न ही किसी की मौत पर ऐसे भव्य आयोजन को पसंद करता हूं।
शायद ही कोई ऐसा दिन होगा, जब ऑफिस में मुझसे कोई न कोई साथी श्राद्ध पर छुट्टी मांगने न आया हो। एक ही जवाब होता है कि शाम को श्राद्ध है, रिश्तेदार एकत्रित होंगे, छुट्टी चाहिए। चूंकि यह सामने वाले की आस्था का मामला है, इसलिए मेरे पास अवकाश स्वीकृत करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। छुट्टी नहीं दूंगा तो मेरे ऊपर कर्मचारी विरोधी होने का आरोप लगाया जा सकता है। हमारे यहां ऐसे भी कर्मचारी हैं, जो श्राद्ध पर अवकाश नहीं देने पर नौकरी को लात मारने को तैयार बैठे हैं।
इस मरुनगरी में श्राद्ध पर बगैर किसी लाभ-हानि के मिठाईयों की दुकानें भी सजी हैं। इन दुकानों पर बाजार से कुछ कम दरों पर मिठाई उपलब्ध हैं, जहां से मिठाई खरीदकर आप अपने रिश्तेदारों को खिलाकर पितरों को तृप्त कर सकते हैं। ऐसी दुकानों पर कचौरी-समोसे से लेकर काजू और बादाम कतली तक खरीद सकते हैं। मेरी नजर में ऐसी ज्यादातर दुकानें बिना लाभ-हानि के बजाय बाजार से अपेक्षाकृत कम फायदे के फार्मूले पर चलती हैं। खैर यह कोई बहस का विषय नहीं है, लेकिन श्राद्ध को मनाने के लिए बाजार आपकी पूरी मदद करता है।
मैं यहां के ऐसे बहुत परिवारों को जानने लगा हूं, जो श्राद्ध का डिनर भी कर्ज लेकर करते हैं। बीकानेर में श्राद्ध का सामान्य आयोजन बीस से पच्चीस हजार रुपए के आसपास बैठता है। यहां के सामान्य परिवारों के लिए इतनी राशि जुटाना बगैर कर्ज के संभव नहीं है। मृत्युभोज का यह एक छोटा रूप है। अगर आप यहां के मृत्युभोज का नजारा देखें तो उसका बजट श्राद्ध से बहुत गुणा ज्यादा दिखाई देगा। परिवार में मौत के दूसरे दिन से ही घर में पकवानों की दावत उड़ने लगती हैं। बारह दिन के दावत की दिनवार सूची तैयार की जाती है। इसमें मरने वाले व्यक्ित को क्या-क्या पसंद था, वो सब माल इन दावतों में तैयार होगा। एक दिन काजू कतली है तो दूसरे दिन जलेबी का दौर। मीठा खाते-खाते उकता गए तो नमकीन के रूप में गोल गप्पे या दहीबड़ा का स्वाद भी चखने को मिलेगा। हर दिन 200 से 500 लोगों का भोजन होगा। पगड़ी रस्म के दिन यह भोजन विराट रूप ले लेता है।
आपके पास पैसा है तो बेहिचक सभी न्यातों को न्यौता दे सकते हैं। यदि पैसा नहीं है तो आपको कर्ज लेना ही पड़ेगा। कर्ज से किसी भी आमंत्रित रिश्तेदार या जानकार को कोई सरोकार नहीं है। सब यही कहकर हौसला अफजाई करेंगे कि मरने वाले की कुछ इच्छाएं थी, जो परिवार को तो पूरी करनी है। आप नहीं जीमण नहीं करेंगे तो हो सकता है कि मरने वाले की आत्मा भूख से तड़फती रहे और उसे शांति नहीं मिले। जिंदा रहते हुए वो हमारे लिए बोझ था, पर आज उसके नाम पर खाने-पीने के लिए सब एक हैं।
मृत्यु भोज को जब कुरीति का दर्जा मिला तो बीकानेर के पुष्करणा ब्राह्मण समाज में भी कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने इसका पूरी तरह बहिष्कार कर दिया। समाज के ऐसे काम का बहिष्कार करने का नतीजा भी उन्हें भुगतना पड़ा और उन पर 'बंधे' का लेबल लग गया। आज भी उन परिवारों के लोग न तो किसी के मृत्युभोज में जाते हैं और न किसी को अपने घर बुलाते हैं।
ReplyDeleteनिश्चय ही समाज की यह बड़ी बुराई है जो संपन्नता के साथ बढ़ती जा रही है। जहां तक कर्ज लेने की बात है, तो ऐसा बहुत कम लोग कर रहे होंगे... पर यह है बुराई ही...
मृत्योत्सव
ReplyDeleteमेरी नजर में यह परम्परा लोगों के लिए पितरों से ज्यादा खुद को तृप्त का माध्यम दिखाई देती है
ReplyDelete@ १००% सहमत